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Yatharth Sandesh
24 Oct, 2022(Hindi)
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परम प्रकाश का प्रतीक है ‘दीपावली’

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भीतर तो है ही नहीं, बाहर में प्रकाश।
कह कबीर कवलों हरी, छपरा पर की घास।।
राम नाम मणि दीप धरि, जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहरो, जो चाहत उजियार।।
आज दीपावली का पवित्र पर्व मानने के लिए इस पवित्र स्थल पर हम सब एकत्रित हुए हैं। हमारे देश की पवित्र परम्परा अनादिकाल से रही है। जिसको कायम रखने के लिए हमारे ऋषियों ने विविध माध्यमों से संदेश देनेे का प्रयास किया। जिन्होंने ईश्वर के क्षेत्र में अपना बलिदान किया। ऐसे महापुरूष ही समाज के पक्के हितैशी और शुभचिन्तक माने गए।
लोग शुभकामनाएँ देते रहते हैं। संसार में शुभ केवल एक परमात्मा है। संसार दुःख का पर्याय है। जिसका परिणाम दुःख है वह शुभ कैसे हो सकता है? आज मिला है। कल बिछुड़ गया। वह शुभ कैसे हो सकता है?
ये त्यौहारों की पवित्र परम्परा केवल भारत में है। अन्य राष्ट्रों में तो कहीं स्थापना दिवस, कहीं कुछ कहीं। किसी महापुरूष का जन्म दिन मना लिया। किसी संस्था का स्थापना दिवस मना लिया। लेकिन हमारे ऋषियों की एक पवित्र परम्परा थी। जिससे आत्मा का विकास होता है। जिसको उन्होंने समाज में कायम किया। क्योंकि उनकी दृष्टि मनुष्य के कल्याण में होती है। जिसे समाज ने त्यौहारों का नाम दिया।
मनुष्यों की दृष्टि केवल परिवार तक ही सीमित होती है। जबकि महापुरूष कल्याणस्वरूप होता है। उनक वाणी से उनके आचरण से, उनके दर्शन से, समाज का कल्याण होता है। क्योंकि उनकी दृष्टि मनुष्य के कल्याण में होती है। जैसे मिश्री को आप कहीं से भी खाना शुरू करे मिश्री मीठी लगेगी। तो महापुरूषों का प्रत्येक आचरण, प्रत्येक संदेश, सब कुछ कल्याणमयी होता है। वह कल्याण का ही सृजन करते हैं। वे कल्याणस्वरूप होते हैं। जहाँ से समाज को कल्याण की प्रेरणा मिलती है। लेकिन हमारा सबका ध्येय तो भौतिक समृद्धि तक है। उस भौतिक समृद्धि को भी दृष्टिगत रखते हुये ऋषियों ने समाज में कुछ ऐसी पवित्र परम्परा रखी जिसका आचरण करके मनुष्य भौतिक समृद्धि को प्राप्त करके उसका भोग करते हुए परमात्मा को भी प्राप्त कर सकता है। इन्हीं परम्पराओं की लड़ी-कड़ी में ये भारत के पवित्र त्यौहार हैं। हर त्यौहार मानव जाति को परमात्मा की प्राप्ति का संदेश होता है। और इतना ही नहीं जितने भी भारत में मांगलिक कार्य होते थे। और आज भी होते हैं। उन सबके पीछे एक यही धारणा थी, कि हम अपना सारा जीवन ईश्वर की सहभागिता में जियें। इसलिए चाहे शादी हो, जन्म, नामकरण संस्कार इत्यादि कोई भी मांगलिक कार्य हो ऐसे जितने भी मांगलिक कार्य होते हैं। उनमें ऋग्वेद के पुरूष शूक्तों का उच्चारण किया जाता है। जो गिनती में सत्रह-अठारह मंत्र हैं। उनका इन मांगलिक कार्यों से क्या संबन्ध है? किसी भी मांगलिक कार्य से उनका कोई मेल नहीं है?
हम कर क्या रहे हैं? और वे कह क्या रहे हैं? इन सबके पीछे महापुरूषों का मात्र यही उद्देश्य था कि उस परम पुरूष परमात्मा से हमारा संबन्ध जुड़ा रहे। उससे हमारी घनिष्टता बनी रहे। उसकी सहभागिता में हम अपना जीवन आगे बढ़ाते रहें। क्योंकि संसार की प्रत्येक बड़ी से बड़ी वस्तु जो उपलब्ध है। एक दिन नष्ट हो जाएगी। और नष्ट होने के बाद वह मनुष्य को दुःख न दे सके? उसे संबल मिलता रहे। यदि मनुष्य का एक ही आधार है। और वह आधार टूट गया तो मनुष्य पागल हो जाएगा। यदि मनुष्य के पास कोई दूसरा आधार हैं। तो वह संभल जाएगा। वह इतना अधैर्यवान ही नहीं होगा। जितना निराधार होने पर होता हैं।
हम फेरे डाल रहे हैं या और कुछ कर रहे हैं तो उसमें ‘सहस्रशीर्षा पुरूषः सहस्राक्षः सहस्रपात, स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाडु़लम्।।’ का क्या मेल है? यह मंत्र कहते क्या है? और मनुष्य करता क्या है? मंत्र कुछ और कह रहा है और मनुष्य कुछ और कर रहा है। हम शादी मंे बैठे हैं या वेदी बनाकर हवन कर रहे हैं। तो उसमें ‘सहस्र शीर्षा पुरूषः’ का क्या मतलब है? इसका क्या मेल है? भगवान जो विराट स्वरूप है। उसके हजार हाथ हैं। उसके हजार पैर हैं, हजार नेत्र हैं। इनका उस कार्य से क्या संबन्ध है? उन महापुरूषों का मात्र इतना ही उद्देश्य था कि समाज को प्रत्येक मांगलिक कार्य में उसकी विद्यमानता का बोध होता रहे।
जैसे आप लोग सत्यनारायण की कथा सुनतेे हैं। जिसमें मात्र चार-पांच अध्याय हैं उसमें कहीं भी सत्यनारायण की कथा नहीं है। केवल उन लोगों का इतिहास है जिन्होंने उस कथा को सुना था या उसकी उपेक्षा की। वास्तविक कथा से तो श्रोता वंचित ही रहता है। और आज तक सत्यनारायण की कथा किसी ने सुनाई ही नहीं। क्यों? क्योंकि सत्यनारायण की कथा केवल महापुरूष के पास है। जिन्होेंने सत्य जो केवल नारायण है। उसे जान लिया है। सत्य कौन है? नारायण केवल एक मात्र नारायण। दूसरा कोई सत्य है ही नहीं। उसमें पाँच ही अध्याय हैं। एक लकड़हारा की कथा, एक कलावती की कथा, एक व्यापारी की कथा, अब उन लोगों ने कौन सी कथा सुनी? यह तो स्पष्ट है कि कुछ लोगों ने श्रद्धा से सुना उनको लाभ हुआ। जिन्होंने उपेक्षा की उनको कष्ट हुआ। लेकिन वह कथा कौन सी है? किसी ने आज तक प्रश्न किया ही नहीं?
महापुरूषों का उद्देश्य तो मात्र इतना था कि हमारे वास्तविक जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु तक जो घटनाएँ घटती हैं। प्रत्येक घटना (कार्य) में ईश्वर की याद बनी रहे, उसकी सहभागिता बनी रहे। जो मनुष्य के अन्तिम श्वासों तक सहयोग प्रदान करता है, साथ रहता है।
संसार में जो दिखाई देता है। सब बीच में ही छूटने वाला है। नष्ट होने वाला है। सब एक-एक करके छोड़ने वाले हैं, लेकिन वही एक परम प्रभु परमात्मा हैं। जो भी कभी मनुष्य का साथ नहीं छोड़ता। जन्म से लेकर मृत्यु तक और मृत्यु के बाद भी उसका सहयोग अपेक्षित है। इसलिए हर परिस्थिति में मनुष्य उस परमात्मा की सहभागिता में जिए। उसे याद रखे। यह दृष्टिकोण हमारे भारतीय ऋषियों का था। बगैर उस परमात्मा की कृपा के संसार में कोई भी व्यक्ति सफलता प्राप्त नहीं कर सकता? जिस व्यक्ति के जीवन से उसकी कृपा उठ जाती है। उस व्यक्ति का जीवन तबाह हो जाता है। चाहे वह व्यक्ति कितना ही शक्तिशाली और साधन सम्पन्न क्यों न हो। न उसका कोई बल काम करता है। न उसके साधन और न ही बुद्धि। न पुरूषार्थ।
मनुष्य वही रहता है। कुछ भी बस नहीं चलता। इसलिये हमें हर समय उस प्र्रभु की कृपा की जरूरत है। हर कार्य में उस परमात्मा को हम कैसे याद रखें? उसकी महापुरूषों ने एक परम्परा बना ली, लेकिन वह परम्परा आज एक रूढ़ी बनकर रह गई। जो मुख्य उद्देश्य महापुरूषांे का था वह गौण हो गया। इसलिए आज मानवजाति अपने कल्याण से बहुत दूर खड़ी हो गई है।
जितने भी हमारे पवित्र त्यौहार हैं। उन त्यौहारों को भी बुद्धिजीवियों ने जातियों में बाँट दिया। होली शूद्रों के लिये, दशहरा क्षत्रियों का, रक्षाबंधन ब्राह्मणों का, तथा दीपावली वैश्यों के हिस्से में डाल दिया।
परम प्रभु परमात्मा को सबको पाने का अधिकार हैं। चाहे वह कितने भी नीचे स्तर में जन्म लिया हो। परमपुरूष परमात्मा को सबने पाया। सबको पाने का अधिकार भी है। रैदास ने पाया, बाल्मीकि ने पाया, सूपा भगत ने पाया, भारद्वाज और याज्ञवल्कय ने पाया, अगस्त ने पाया, लेकिन आज देखिये समाज की संकीर्णता इतनी बढ़ गई है कि बाल्मीकि जी की जयन्ती को तथाकथित विकसित समाज के लोग नहीं मानाते। कहते हैं कि बाल्मीकि की जयन्ती अछूत, हरिजन-भंगी ही मनायेेंगे।
भगवान ने अपनी महिमा को सर्वत्र प्रकट किया। उन्होंने यह दिखाया कि संसार का कोई भी प्राणी साधना और हृदय को निर्मल करके मुझे प्राप्त कर सकता है। चाहे कोई कितना ही नीचे स्तर में जन्म लिया हो वह भी भगवान को प्राप्त करके महान बन सकता है।
हमारे सबके अंदर भगवान राम, भगवान कृष्ण, भगवान बुद्ध, महावीर, नानक, मोहम्मद, ईशा। जितनी महान आत्मा को ये उपलब्ध हुए वह सबके अंदर है। लेकिन हमारे सबके अंदर प्रकृति का आवरण इतना अधिक है कि हम उस महानता को देख नहीं पाते। इसलिए महापुरूषों ने साधना पर बल दिया। उस साधना को आप किसी तत्वदर्शी महापुरूष से प्राप्त करके उस महान आत्मा का दर्शन कर सकते हैं। जिसका दर्शन करने केे बाद फिर कुछ भी शेष नहीं रहता है।
भगवान राम के काल में यदि कोई पवित्र आश्रम था तो वह बाल्मीकि का आश्रम। सीता के रहने लायक यदि कोई स्थान था तो वह बाल्मीकि का आश्रम। लेकिन आज संकीर्ण विचारों ने मनुष्य के मन को कितना कलुषित कर दिया है। कहते हैं कि हम बाल्मीकि जयन्ती नहीं मनायेंगे। बाल्मीकि हमारी जाति के नही थे। उन्होेंने ऐसे पवित्र शास्त्र की रचना किया है। जिस पर चलकर कोई भी व्यक्ति अपनी महान आत्मा का दर्शन कर सकता है। उस महानता को उपलब्ध हो सकता है। जिस महानाता को बाल्मीकि प्राप्त हुये थे। इतने महान हो गए थे कि भगवान राम को भी उनके सामने श्रद्धा से झुकना पड़ा।
मुनि कह राम दण्डवत कीन्हा, आर्शीवाद विप्रवर दीन्हा।
भगवान राम ने साष्टांग प्रणाम किया। लेकिन आज मनुष्य की संकीर्ण विचारधारा ने उन महान पुरूषों की जयन्ती को वर्ग विशेष की जयन्ती मानकर के संकीर्ण विचारधारा को जन्म देकर अपने कलुषित हृदय का ही परिचय दिया है। अपनी संकीर्ण मानसिकता का परिचय दिया है। इससे आगे और कुछ नहीं। वर्तमान समाज में विद्वानों की, कितनी संकीर्ण मानसिकता है इससे इसका परिचय मिलता है।
हीरे पर कीचड़ डाल देने से उसके प्रकाश पर कोई अंतर नहीं होता। कीचड़ जब हट जाएगा तब प्रकाश अपनी जगह पर रहेगा। कोई कुछ भी कहता रहे।
धूत कहो अबधूत कहो रजपूत कहो जुलाहा कहो कोई।
काहू की बेटी से व्याह करों नहिं, काहू की जात विगारों न सोई।।
मांग के खइवों, मसीद के सुईवों, लेवे को एक ने देवे को दोई।
तुलसी सरनाम गुलाम है राम को, भावें रूचें सो कह कोई कोई।
भगवान के सच्चे भक्तों पर संसार के आक्षेपों का कोेई असर नहीं होता। यह जो त्यौहार हैं किसी वर्ग विशेष के नहीं हैं। यह मानव मात्र के हैं। मानव मात्र को कल्याण का संदेश देते हैं। हमारे देश की कितनी पवित्र संस्कृति है कि हम आपस में एक दूसरे से मिलें तो जो छोटे हैं बड़ों से राम-राम करें। कम से कम इतना विचार तो कभी हमें आयेगा कि वह राम कहाँ रहता है वह कौन है? जिसका हम बार-बार नाम लेते हैं। ऐसी पवित्र संस्कृति एवं विचारधारा किसी राष्ट्र में नहीं है। यह हमारे महान ऋषियों की दूरदर्शिता एवं कल्याण की भावना से ओतप्रोत भावना का ही प्रमाण है। जो इस राम राम कहने की परम्परा को समाज में रखा कि कभी तो मनुष्य के मन में उस परमात्मा को जानने का विचार आयेगा। जिसका वह दिन में कई बार नाम लेता है। वह कैसा है? कहाँ रहता है? उसे कैसे जाने और कैसे प्राप्त करें? उसको जानने का विचार ही तो मनुष्य को कल्याण पथ में खड़ा कर देगा।
एक लड़का था जब वह खड़ा हुआ समझदार हुआ उसको विचार आया कि, मैंने जिस राज्य में जन्म लिया उस राज्य के राजा को देखा नहीं उससे बात नहीं किया क्या मैं उसे देखे बिना बातें किए बिना ही मर जाऊँगा ऐसा सोचकर वह बुजुर्ग विद्वानों से मिला। उनसे मिलकर अपनी जिज्ञासा प्रकट की कि, मैं राजा से बात करना चाहता हूँ? कैसे कर सकता हूँ क्या राजा मुझसे बात करेंगे? उसकी बातें सुनकर कुछ तो हँसने लगते, कुछ समझाने लगते कि वहाँ बड़े-बड़े लोगों का प्रवेश आसान नहीं है। बड़े-बड़ों से बात नहीं करते है। तुम तो एक साधारण गरीब परिवार में जन्मे हो। वह लड़का निराश नहीं हुआ यह विचार उसके मन में बार-बार आता था उसी बीच उसे सुनाई दिया कि नदी के उस पार एक महात्मा आए हुए हैं। लोग उनके दर्शन करने जा रहें हैं। वह भी दर्शन करने गया जब सभी लोग उठकर चले आये तो उसने महात्मा जी के सामने अपनी इच्छा प्रकट की। महात्मा जी ने लड़के से कहा! राजा का विश्राम गृह बन रहा है। उसमें जाकर काम करो। लेकिन मजदूरी मत लेना। तो राजा एक दिन स्वयं तुमसे आकर बात करेगा। सप्ताह में एक दिन सभी मजदूरों का हिसाब होता था। उसने चार सप्ताह तक कुछ भी नहीं लिया। मंत्रियों द्वारा यह बात राजा तक पहुँची। राजा एक दिन विश्राम गृह को देखने आये। उन्होंने लड़के को बुलाकर मजदूरी न लेने का कारण पूछा! लड़के ने उत्तर दिया कि राजन! यह तो अपना ही काम है। अपने काम में मजदूरी किससे लें। इस बात को सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और गर्व का अनुभव किया। कि मेरे राज्य में ऐसे निष्ठावान लोग हैं। उसी समय राजा ने सबके सामने यह घोषणा कि तुम्हारे जैसे निष्ठावान युवकों द्वारा ही राज्य सुरक्षित रहता है एवं विकास की तरफ बढ़ता है। आज से तुम्हारी ड्यूटी मेरे दरबार में है।
ठीक इसी प्रकार करोड़ो मंे से किसी एक के मन में यह विचार आता है कि जिस परमात्मा का मैं अंश हूं जिस परमात्मा ने इस सृष्टि की रचना की है। वह कैसा होगा? क्या मैं उससे बातें कर सकता हूँ? यही जिज्ञासा मनुष्य को संत के पास ले जाती है। जहाँ से उसे सृष्टि के राजा परमात्मा की प्राप्ति का साधन प्राप्त होता है। कि नाम का सुमरन करो। और सेवा करो, लेकिन बदले में कोई कामना न हो। आपका सुमरन एंव सेवा निष्काम हो तभी वह परमात्मा आपको अपनाकर हृदय से जागृत हो जाएगा। आपसे बातें करने लगेेगा। आपका मार्गदर्शन करेगा। मागदर्शन करते हुए अपना धाम दे देगा। यदि साधक कामना कर लेता है। तो वह पाता है। लेकिन वह फल नष्ट हो जाता हैै और साधक श्रेय से वंचित हो जाता है क्योंकि।
जप तप करके स्वर्ग कमाना, यह तो काम मजूरों का।
जप तप सेवा के बदले में कुछ मांँग लिया तो मजदूरी उसे मिलेगी लेकिन वह भक्त न होकर एक मजदूर ही रह जाएगा।
ऐसे ही हम लोग आपस में मिलते हैं। राम-राम करते हैं। लेकिन किसी बिरले के अन्दर उसे जानने का देखने का विचार आता है। उस राज्य में कितने युवकों ने जन्म लिया लेकिन उस युवक में ही विचार आया कि में राजा से मिलूँगा।
हमारे ऋषियों ने इसी उद्देश्य से इस राम-राम की परम्परा को कायम किया था। राम को जानने की जिज्ञासा व्यक्ति को संत तक ले जाएगी। जहाँ से उसे राम के दर्शन का रास्ता मिल जाएगा। इतनी पवित्र संस्कृति एवं परम्परा विश्व में कहीं नहीं है। और इसी पवित्र संस्कृति एवं परम्परा की लड़ी-कड़ी है यह दीपावली का पर्व।
दीपावली के विषय में किवदंती है। विजय दशमी के बाद राम विमान पर चढ़कर के इसी दिन अयोध्या पहुँचे थे। भगवान राम के स्वागत मंे अयोध्या को दुल्हन की तरह सजाया गया था। आज कल की तरह बिजली व्यवस्था तो थी नहीं। इसकी पूर्ति के लिए दीपदानों का प्रयोग किया था।
अवधपुरी आवत प्रभु जानी, भई सकल शोभा की खानी।।
दीपावली का अर्थ है दीप एवं अवली अर्थात् दीपकों की पक्तियां, दीपकों को चारो ओर सजाया गया। चारो ओर प्रकाश हो गया तमसो मा ज्योतिर्गमय अंधकार से प्रकाश की ओर जब अज्ञान अंधकार रावण अज्ञान का प्रतीक है। इस अज्ञान पर विजय प्राप्त कर साधक ज्ञान एवं प्रकाशस्वरूप परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।
आसुरी विचार अंधकार की ओर ले जाते हैं। जहां हानि-लाभ तथा अपने पराये की देखने की क्षमता नहीं होती। रावण लंका में रहता था। ये लंका क्या है? जिन गोस्वामी जी ने रामचरितमानस की रचना की उन्होंने ही बताया -
मोह दश मौलि तद भ्रात अहंकार, पाकार जित काम विश्राम हारी।
भट अतिकाय अकंपन महोदर तुष्ट क्रोध पापिष्ट विवुधान्तकारी ।।
प्रबल वैराग्य दारूण प्रभंजन सुत।।
मनुष्य के अंदर उठने वाले तर्क-कुतर्क ये ही समुद्र की लहरें हैं। यह शरीर ही व्यवस्थित ब्रह्माण्ड है इसके अन्तराल मंेे वृत्ति ही लंका है। इस वृत्ति में कौन-कौन सी वृत्तियाँ प्रमुख है।
‘‘ मोह सकल, व्याधिन कर मूला।’’
मोह है, दशानन उसका भाई अहंकार, यह काम, क्रोध, मोह, लोभ, मद, मत्सर, अहंकार, राग-द्वेश जीव को बार-बार अनन्त योनियो में चक्कर काटाते हैं। साधना के द्वारा इन पर जब विजय प्राप्त हो जाती है। पूर्ण रूप से अज्ञान का अंधेरा मिट जाता है। तो ज्ञान का प्रकाश ही शेष बचता है। इसलिए अवध शोभा की खान हो जाती है। पहले इन शरीरों का वध होता था। लेकिन आसुरी विकारों पर विजय प्राप्त करते ही जन्म-मृत्यु से छुटकारा मिलना ही अवध की स्थिति है।
संसार जन्मता रहेगा मरता रहेगा लेकिन कभी न मिटने वाला परमात्मा, उससे हमारा संबंध होते ही चारों तरफ प्रकाश ही प्रकाश हो गया।
उस अज्ञान से छुटकारा मिल गया। मोह समूल नष्ट हो गया। फिर राम का राज्याभिषेक हो गया। प्रकाश चारों तरफ हो गया लेकिन उस प्रकाश को हम कैसे प्राप्त करें? यह तो हम सभी जानते हैं, कि दीपावली को भगवान की विजय मनाई जाती है। चारों तरफ प्रकाश ही प्रकाश है। सर्वत्र ईश्वरीय प्रकाश की आभा दिखाई दे रही है।
इस प्रकाश को जन साधारण कैसे प्राप्त करें उस पर महापुरूषों ने कहा कि-
राम नाम मणि दीप धरि, जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहरो, जो चाहत उजियार।।
राम नाम रूपी मणि को दीपक में रखकर जीभ रूपी चैखट में रखो। यदि भीतर और बाहर प्रकाश चाहते हैं। अर्थात ईश्वर की छत्र-छाया में रहते हुए समाज में भी विकास और प्रकाश चाहते हैं। तो एक राम नाम को जीभ रूपी चैखट में बसा लें। तो बाहर गिरने को कोई गड्डा बचेगा ही नहीं क्योंकि बाहर भी आपको सर्वत्र ईश्वरीय प्रकाश दिखाई देगा।
पहले योगी अपने हृदय में ईश्वर का साक्षात्कार कर बाहर भी सर्वत्र उस प्रकाश को देखते हैं। यदि अंधेरे में आपको नहीं रहना है तो इसकी शुरूआत कहां से है? परमात्मा के नाम जप से। इसका एक उपाय महापुरूषों ने बताया आप दीपावली में आप क्या करते हैं? घी है, वाती है, दीपक है, इन सारी वस्तुओं को आप कैसे प्राप्त करें? ये हमारे ऋषियों ने बताने का प्रयास किया।
सात्विक श्रद्धा धेनु सुहाई, जो हरी कृपा हृदय वसि आई।।
जप तप वृत यम नियम अपारा, जो श्रति कह शुभ धर्म अचारा।।
तेई त्रण हरित चरई जव गाई, भाव वक्ष शिशु पाई पिन्हाई।।
आप नाम तो जपते हैं। लेकिन श्रद्धा नहीं है। प्रेम नहीं है। बिना श्रद्धा के, भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि अर्जुन हृदय में स्थित ईश्वर को श्रद्धा के द्वारा जान सकते हो। उसे जानकर मनुष्य परमशान्ति को प्राप्त हो जाता है। उसकी शरण में जायें, लेकिन कैसे जाए?
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।। (गीता 4/36)
गंगा नहाने से कोई पवित्र नहीं होता।
मलहि की जाये, मलहि के धोये, कोउ धृत पाउ कि वारि विलोये।।
प्रभु के ज्ञान को कैसे प्राप्त करें? योग के द्वारा। योग की परिपक्व अवस्था। योग की पराकाष्टा के द्वारा ईश्वर को प्राप्त करें। ईश्वर के साक्षात्कार के साथ ही अज्ञान अंधकार सर्वथा के लिये मिट जाता है। उस ज्ञान की प्राप्ति कैसे हो?
श्रद्धावँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।। (गीता 4/39)
जो श्रद्धावान है वह ज्ञान को प्राप्त करता है। ‘तत्परः संयतेन्द्रियः’ केवल श्रद्धा ही पर्याप्त नहीं है। इन्द्रिय संयम के साथ ‘ज्ञानं लब्धवा परां शान्ति’ लेकिन आज ज्ञान की परिभाषा नई हो गई है। लोग तमाम शास्त्रों का अध्ययन करके मान लेते हैं कि हम बहुत ज्ञानी हैं। लेकिन किसी महापुरूष ने इसे स्वीकार नहीं किया। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ज्ञान के समान निसंदेह श्रृष्टि में पवित्र करने वाला में कुछ भी नहीं है। लेकिन वह सुनकर के नहीं तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।
स्वयं योग की पराकाष्टा में वह विदित होता है। उस ज्ञान को पाकर श्रद्धावान तत्काल परमशान्ती को प्राप्त हो जाता है। जिसके पीछे कोई अशान्ति शेष नहीं रहती। लेकिन आज संसार में जितने तथाकथित ज्ञानी हैं। उनसे बड़ा अशान्त जीवन जीने वाला कोई नहीं। जबकी ज्ञानी की परिभाषा बताया कि जिसको ज्ञान प्राप्त हो गया। उसके पीछे कहीं अशान्ती नहीं और इसकी पुष्टि भगवान स्वयं कर रहे हैं।
ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।। (गीता 18/61)
अर्जुन ईश्वर हृदय में निवास करता है। तू सम्पूर्ण भावों के साथ, श्रद्धा के साथ हृदय मेें स्थित ईश्वर की शरण जा। जिसके परिणामस्वरूप तू परमशान्ति को प्राप्त होगा।
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।। (गीता 18/62)
ज्ञान को प्राप्त होने वाला ईश्वर का दशर्न पाने वाला परमशान्ति को प्राप्त होता है। मन, क्रम, वचन से, सम्पूर्ण भावों से, शरण जाने वाला, ईश्वर का दर्शन पाने वाला परमशान्ती को प्राप्त करता है। ईश्वर का दर्शन ही ज्ञान है। ईश्वर दर्शन रूपी ज्ञान को प्राप्त करने वाला ही परमशान्ति को प्राप्त होता है।
श्रद्धा! मनुष्य की श्रद्धा तीन प्रकार की होती है। ये तीन गुण होते हैं। तामसी श्रद्धा, राजसी श्रद्धा, और सात्विकी श्रद्धा। लेकिन महापुरूषों ने सात्विकी श्रद्धा को श्रेष्ठ माना है। सात्विकी श्रद्धा के द्वारा ही ईश्वर का साक्षात्कार होता हैं तामसी और राजसी श्रद्धा हमें भजन और सेवा में प्रवृत करती है। बिना श्रद्धा के अगर कोई सेवा भी करता हैै तो उसकी सेवा पूरी होगी ही नहीं। यदि हमारी ईश्वर में श्रद्धा है तो हमसे सेवा में कभी कोई भूल नहंी होगी। किसी प्रकार की गलती या त्रुटि भी नहीं होगीं। कोई नुकसान भी नहीं होगा।
तामसी श्रद्धा ही सही। हमारी उसमें श्रद्धा तो है। तो ऐसी श्रद्धा, तामसी श्रद्धा के बाद राजसी श्रद्धा और राजसी श्रद्धा के बाद जैसे ही सात्विकी श्रद्धा आई। वही भगवान की कृपा का प्रसाद है। सात्विकी श्रद्धा
जो हरि कृपा हृदय बस आई, भाव वच्छ शिशु पाये पिन्हाई।।
ऐसी श्रद्धारूपी गाय जिसके हृदय में आकर बस जाती है। जप, तप, वृत, यम, नियम जितने भी ये धर्म आचरण हैं प्रभु को मिलाने वाले हैं। इन्हीं आचरणों को वह गाय चरती हैं अर्थात मन इन्हीं सदविचारों में विचरण करता है।
‘भावे विद्यते देवा’, ‘भाव वस्य भगवान, सुख निदान करूणा अयन’ भाव रूपी बछड़े को पाकर, श्रद्धा रूपी गाय पिन्हाई जाती है। जब पिन्हाईगी? पिन्हाने का मतलब उसके थानों में दूध उतर आता है। भाव वच्छ शिशु पाकर। आप कहते हैं। कि यहां पानी का अभाव है। यहां अमुक चीज का अभाव है। यदि वह चीज नहीं है। अभाव माने ये चीज नहीं है। यदि हमारा मन परमात्मा से जुड़ा हुआ है। ये भाव का प्रमाण है। भाव माने वह चीज है। हमारे पास है। हम उसके सामने है। वह हमारे सामने हैै।
भाव वच्छ शिशु पाई पन्हाई। ऐेसे बछड़े को पाकर पिन्हाती है। तो दोहने वाला कौन है? अहीर गाय में पैरांे को जो बांधते हैं, उसे कहते हैं नोई। नोई क्या है? ‘नोई निवृति पात्र विश्वासा, निर्मल मन अहीर निज दासा।’ दूध निर्मलता का प्रतीक है। ऐसा निर्मल हृदय साधकजन की श्रेणी में आ जाते हैं ऐसे साधक का एक ही उद्देश्य होता है कि सर्वथा दुखों से निवर्ति ऐसी भावना प्रबल होते ही इन्द्रियों (गाय) की उछल कूंद बंद हो जाती है। यहीं से निष्काम भक्ति की शुरूआत होती है। उसके हृदय में पूर्ण विश्वास है कि इस साधना के द्वारा कल्याण को प्राप्त होऊंगा। वह पात्र जिसमें दूध दुहा जाता है। वह पात्र है। वह कुपात्र नहंी है। उसमें पात्रता आ गई। इतना जहाँ आपके अंदर लक्षण आया तो आप प्रभु की कृपा के पात्र हो गये। और उस पात्र में प्रभु की कृपा भर जाएगी। निर्मल मन अहीर है। अब उसमें दूध निकालकर अब उस दूध को उटाने के बाद ओट ही अनल अकाम बनाई अकाम। कामना रहित होकर यह निष्काम अग्नि है। जिसमें उसको औटाना है। औटाने के बाद-
तोष मरूत तब क्षमा जुड़ावे, घृति सम जामन दही जमावे।।
मरूत माने हवा। दूध को हवा में ठंड़ा करना है। साधक को जो मिल जाये उसमें संतुष्ट रहे। अहर्निश अपने चिन्तन में लगा रहे। कही राग, द्वेष में न उलझे। कोई कुछ भी कहता रहे उसकी प्रति क्षमा भाव रहे। जरा संकल्प पाते ही मन हवा से बाते करने लगता है। मन को स्थिर रखने का एकमात्र उपाय संसार के भोगों के प्रति पूर्ण उदासीनता। ‘तोष मरूत तब क्षमा जुड़ावे’ उसमें क्षमा भाव रहे। मन को लक्ष्य में केन्द्रित करने का ही उपाय है। उसमें संतुष्टि है और क्षमा है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि बिना उकताये हुए चित से भजन करना ही मेरा कर्तव्य है। ऐसा मान करके जो साधन में प्रवृत होता है उसी का योग सिद्ध होता है। यह नहंी कि कुछ परिणाम नहीं निकल रहा है। हम कर रहे हैं सच्चे मन से लगे हैं? तो परिणाम क्यों नहीं निकल रहा है? जबकि परिणाम कर्म से विलग नहीं है। जैसे सूर्य का प्रकाश सूर्य से अलग नहंी है मनुष्य से मनुष्य की छाया अलग नहीं है तो चाहे आपके अच्छे विचार हो या बुरे विचार हो परिणाम उससे अलग किया ही नहीं जा सकता। जैसा कर्म करते हैं परिणाम साथ में रहता है।
धैर्यता होनी चाहिए। कुछ कमी है इसलिए थोड़ा देर हो रही है घृतिसम जामन दैह जमावे। तो दूध को ठंडा करने का मतलब बिना उकताये हुए मन से साधना द्वारा शनैः-शनैः शांति की तरफ अग्रसर होकर जप एवं चिन्तन की निरंतरता में ध्यान में उपलब्ध होना उस ध्यान में ईश्वरीय कृपा के संचार की अनुभूति में मन का अह्लादित होना यही दही का मथना है, लेकिन इन सबका आधार इन्द्रियों का दमन अर्थात इन्द्रियों का सर्वथा अपने विषयों से सिमट जाना तभी उस योगी के पास सत्य को कहने, उसे प्रकट करने की क्षमता आती है। जम गया तो अब मथंेगे कैसे? ‘मुदिता मथै विचार मथानी, दम आधार रज सत्य सुवानी’। विचार रूपी मंथन से संसार में हमने इस अनमोल जीवन को कितने बार नष्ट किये और नष्ट करते जा रहे हैं। आप भी इसी के पीछे भागे जा रहे हैं। और अंत में मिलेगा क्या?
जब भी हमारा मन इधर लगेगा तो धीरे-धीरे हमें अपने रास्ते से भटकाने वाले बहुत से दृश्य और शब्द मिलेंगे। तब विचार कैसे? मुदित माने प्रसन्न मन में विचारों को काटते रहो। देखते रहो कोई भी विचार आपको भटकाने वाले आपकी साधना में कोई विघ्न न डाले धीरे-धीर आप साधना में आगे बढ़ते जाए दूसरा आधार क्या है? इन्द्रीयों का दमन। मथानी में रस्सी लगी रहती है न? मथानी में सुवानी हमेशा सत्य से ओत प्रोत, जब कोई वाणी से, आचरण से भगवान के रास्ते में नहीं चलता। क्योंकि भगवान के रास्ते में गोलमोल नहीं चलता। जब मन में कपट न हो।
तव मथ काढ़ि लेई नवनीता,विमल विराग सुभग सुपुनीता।।
विमल वैराग्य ये मक्खन है। ये वैराग्य रूपी मक्खन परम पुनीत हृदय में प्रादुर्भाव हुआ तो जो परम पवित्र परमात्मा है। उससे हमारा संबंध जुड़ जाता है। इसलिए उसे परम पवित्र कहा गया है। क्योंकि पवित्र वस्तु को पवित्रता से ही प्राप्त किया जाता है। तो अब जब मक्खन निकल आया। तो अब कैसे करेंगे आप। अब गरम करके घी बनाएगें। क्योंकि मक्खन से तो दीपक जलेगा नहीं। क्योंकि इसमें पानी का अंश होता है। तो आप घी कैसे बनाऐंगे?
योग अगिन कर प्रकट तब, कर्म शुभाशुभ लाइ।
बुद्धि सिरावै ज्ञान घृत, ममता मल जर जाइ।।
अगर थोड़ी सी ममता भोगों में है। थोड़ी सी मान सम्मान है। परिवार में ममता है।
इसी प्रकार भजन में भी ममता होती है। लेकिन भजन के परिणाम में परमात्मा का दर्शन हो जाता है। तो ‘कर्म शुभाशुभ लाय’। शुभ और अशुभ दोनों शेष हो जातेे हैं। ईश्वर साक्षात्कार के साथ संसार के सभी दोष जो ममता से उत्पन्न होते हैं। समूल नष्ट हो जाते है। शेष परमात्मा ही बचता है। इस ज्ञान घृत में-
तीन अवस्था तीन गुण, तेहि कपास ते काढ़ि।
तूल तुरीये संवार पुनि, वाती करे सुगाढ़।।
इसलिए जागृत, स्वप्न, सुसुप्ती ये तीनों गुणों के अन्तराल में प्राप्त होने वाली अवस्था तथा इनसे उपराम तुरीय अवस्था को बार-बार संभाल कर अपनी स्थिति रूपी बाती को दृढ़ करना है।
तव विज्ञान रूपनी बुद्धि विषद घृत पाई।
चित्त दिया भर धरे दृढ़ समता दियट बनाई।
यह विधि लेसे दीप, तेज राशि विज्ञान मय।
जातहि जासु समीप, जरई मदादिक सलभ सब।।
साधना करते-करते योगी क्रमशः तमोगुण, रजोगुण, सतोगुण से उपराम होकर तुरियातीत अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं। ऐसी योगी ज्ञान, विज्ञान से तृप्त अंतःकरण वाले परमशान्ति को उपलब्ध हो जाते हैं। उनके हृदय में अखण्ड एकरस आनंद का सागर लहराता रहता है। अब इस अवस्था से संसार की कोई भी अनुकूल, प्रतिकूल परस्थितियाँ योगी को विचलित नहीं कर सकती। क्योंकि राग-द्वेश से परे समत्व से प्राप्त योगी ईश्वर का साक्षात्कार करके सबसे उपराम हो जाता है।
साधना के परिणाम में ‘अहं ब्रह्माऽिस्म्’ रूपी प्रज्वलित दीपाशिखा संसार की किसी भी प्रकार की आँधी से न बुझाने वाली अखण्ड ज्योति, योगी के हृदय में जलती रहती है। ऐसे योगियों के समक्ष संसार के श्रेृष्टतम भोग बिना उनके चित्त में उद्वेग किये हुये शान्त हो जाते हैं। इस भोगों का अभाव भी उनके मन को क्षुब्द नहीं कर पाता। ऐसा योगी समत्व में दृढ़तापूर्वक आरूढ़ कहा जाता है।
ऐसे हमे तैयार करना हैं उस दीपक को भजन की प्रक्रिया द्वारा उस साधना में मन, क्रम-वचन से समय देने से भजन की पराकाष्टा में ईश्वर साक्षात्कार के साथ सम्पूर्ण दुःखों से छुटकारा होते ही उस जीव को संसार रूपी अंधकार में कभी पड़ना नहीं, वह हमेेशा ईश्वरीय प्रकाश की सहभागिता में अपना जीवन जी रहा है। और समाज को ऐेसे महापुरूष कल्याण का संदेश देते आये हैं। और उनके निर्देशन में चलने वाले अपना कल्याण करते रहें हैं। इसके लिये हमें अपने आप को तैयार करना पड़ेगा।
लेकिन जब आप संसार से अलग होकर भजन पथ में अग्रसर होते हैं। तो जन्म-जन्मान्तरों के संचित संस्कारों के कारण विभिन्न प्रकार के विघ्न उत्पन्न होते हैं। इसका स्वल्प वर्णन गोस्वामीजी ने कुछ इस प्रकार किया है-
छोड़ति ग्रंथि जानि खगराया, विघ्न अनेक करई तव माया।।
जब ईश्वरीय ग्रन्थि पड़़ गई। ‘यद्पि मृषा छूटत कठिनाई’। साधनाकाल तथा इसकी उन्नत अवस्था मेें मााया अनेक रूपों में साधक के समक्ष विघ्न उपस्थित करती है। वह सबका रूप बना लेती है। वह किसी के रूप में आकर काम प्रारम्भ कर देती है। जैसे अयोध्या मे गयी थी, माया तो मंथरा के अन्दर प्रवेश करके अपना काम कर गयी व माया किसी भी रूप में प्रवेश करके अपना काम कर जायेगी। विघ्न कैसे-
कल वल, छल कर जाहि समीपा,अंचल बाति बुझावहि दीपा।।
अंचल की हवा से दीप को जो सद्गुरू ने दिया है उस ज्ञानरूपी दीपक को बुझाने का प्रयास करती है। लेकिन बुद्धि जिस साधक की योगी की परमतत्व परमात्मा से संयुक्त होती है वह इस माया के उतार-चढ़ाव को समझकर माया के किसी भी प्रकार के प्रलोभन में भाव में मान-सम्मान में नहीं फसते। क्योंकि जिनके हृदय से ईश्वर रथी हैं। वे सदैव ईश्वरीय आदेश का पालन करते हुये माया जनित सभी विघ्नों को सहज ही पार कर लेते हैं।
होहि वुद्धि जो परम सयानी, तिन तन चितव न अनहित जानी।
जे तेहि विघ्न बुद्धि नहि वाधी, तो वहोरि सुर करहि उपाधी।।
यदि मृत्यु लोक के सर्वोच्च भोगों तथा सम्मान में साधक नहीं फंसा तो। देवलोक के सर्वोत्कृष्ट भोग एवं सम्मान उस साधक के सामने प्रकट होते हैं। यदि साधक किसी भी प्रकार के भोगों या उपलब्धि कोे स्वीकार कर लेता है। तो वह उसमें फसकर साधना से दूर हो जाता है। फिर जो उसे ईश्वरीय प्रकाश मिल रहा था। ईश्वरीय निर्देशन में चल रहा था। वह ईश्वरीय निर्देश बन्द हो जाता हैै। उस ईश्वरीय प्रकाश के मिट जाने से मणि हीन सर्

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